संस्कृत : समस्त मानवों के आचार – विचार और उच्चारों की जननी
क्या आप जानते हैं ?
समस्त मानवों के आचार – विचार और उच्चारों की जननी – संस्कृत ……….
विविध भाषाओँ की स्त्रोत “संस्कृत” भाषा के संबंध में प्रचलित सभी धारणाएं भ्रमपूर्ण हैं |
वर्तमान में पाश्चात्य सिद्धांतों को अधिक मान्यता प्राप्त है, क्योंकि “जिसकी लाठी उसकी भैंस ” | पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति के अन्धानुकर्ता यह समझ बैठे हैं कि “ग्रीक”,“लैटिन”,“संस्कृत तीनों किसी न किसी प्राचीन भाषा की संतान हैं | हमारी ज्येष्ठ भाषा “संस्कृत“का तो वे नाम भी ढंग से नहीं जानते, अतः अपनी काल्पनिक “जननी भाषा” को”इंडो – यूरोपियन” ऐसा ऊटपटांग नाम देकर काम चला लेते हैं | वास्तव में समस्त भाषओं की जननी संस्कृत ही है |
दूसरा भ्रम उन्हें “संस्कृत” नाम के निर्माण से हुआ है | पाश्चात्य लोग कहते हैं कि “संस्कृत-यानी अच्छी गढ़ी हुई भाषा” | ऐसा वो इसलिए कहते हैं क्योंकि उनका मानना है कि “संस्कृत” किसी अन्य भाषा से बनी भाषा है , ठीक उसी प्रकर जैसे निराकार पत्थर से मूर्ति बनती है | लेकिन वास्तव में “संस्कृत” शब्द का अर्थ है कि जो भाषा, ईश्वर द्वारा निर्मित होने के कारण अच्छी बनी हुई है | अतः संस्कृत किसी अन्य कच्ची या अधपकी भाषा से बनी है यह बिल्कुल बेबुनियाद व आधारहीन तर्क हैं |
पाश्चात्य विचारधारा के अनुसार प्राचीनकाल का मानव वानर था जो कि बर्बर प्रकृति था | तो सोच का विषय है कि ऐसी अवस्था का मानव भला संस्कृत जैसी भाषा कैसे बना पाता ? सच तो यह है कि संस्कृत के टूट- फूट जाने से ही अन्य प्रादेशिक भाषाएँ बनी हैं न कि प्राकृति भाषाओं से संस्कृत बनी है |
“प्राकृति” शब्द की रचना ‘प्र’ व ‘आकृति’ की संधि से हुयी है, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि “प्राकृति” वे भाषाएँ हैं जिन्हें किसी अन्य मूल भाषा से आकार प्राप्त हुआ है | संस्कृत भाषा के टूट जाने पर उसका व्याकरण भी टुकड़ों – टुकड़ों में अन्य भाषाओँ में बंट गया | अतः पाणिनि का ही व्याकरण अन्य सभी भाषाओँ पर लागू हुआ है | संस्कृत जैसी आप्राकृतिक भाषा मानव बना ही नहीं पाता | मानव का हाथ लगते ही वस्तुएं दूषित हो जातीं हैं | इसका उदाहरण है – आजकल कारखानों में जो भी खाद्यसामग्री अथवा दवाइयां बनतीं हैं, वे एकदम :”शुद्ध” हैं, यह जताने के लिए उन पर लिखा होता है “Untouched by any Human hand” अर्थात् किसी भी व्यक्ति के हाथ स्पर्श बिना बनी वस्तु’ |
रॉयल एशियाटिक सोसायटी, लंदन में पढ़े गये, एक वक्तृत्व में कहा गया है कि “बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जिस भारत के ऊपर कई क्रुद्ध आक्रामकों का आक्रमण होता रहा जिनके पद चिन्ह उस भूमि पर पाए जाते हैं, उसी भारत में समय और शासन बदलते रहने पर भी एक भाषा ऐसी टिकी हुई है कि उसके विभिन्न पहलुओं और वैभवता की कोई सीमा नहीं; जो “ग्रीक”, “लैटिन” जैसी मान्यता प्राप्त यूरोपीय भाषायों की जननी है तथा जो “ग्रीक” से भी लचीली और “रोमन” भाषा से भी सशक्त है | यह वह भाषा है जिसके दर्शनशास्त्र की तुलना में पायथागोरस के कथन “कल जन्मे हुए शिशु” जैसे बालिश लगते हैं; जिसकी वैचारिक उड़ान के आगे प्लेटो की ऊँची से ऊँची कल्पनाएँ निष्प्रभावित और समान्य सी लगती हैं; जिसके काव्यों में व्यक्त प्रतिभा अकल्पित – सी है और जिसके शास्त्रीय ग्रन्थ तो इतने प्राचीन हैं कि उनका कोई अनुमान ही नहीं लगा पाया और शायद आगे लगा भी नहीं सकता | संस्कृत का सारा साहित्य इतना विपुल और विशाल है कि उसका तो जितना वर्णन किया जाये, उतना कम ही पड़ेगा | उसके सहित्य का अपना एक विशिष्ट स्थान है | उसकी पौराणिक कथाओं की तो सीमा ही नहीं है | उसके दर्शनशास्त्र में हर प्रकार की समस्या या पहेली का विचार किया गया है तथा वैदिक समाज के प्रत्येक वर्ण और वर्ग के लिए उसके धर्मशास्त्र के नियम बने हुए हैं |”
“Indian Antiquities” नाम का सात खंडों का ग्रन्थ, जिसके सम्पादक थॉमस मॉरिस हैं, सन् 1792 से 1800 तक प्रकाशित हुआ | उसके चौथे खंड के पृष्ठ 415 पर उल्लेख है कि – “Hollhead का सुझाव है कि संस्कृत भाषा ही पृथ्वी की मूल भाषा है |”
देश – विदेश के अन्य विद्वान् भी यदि सूक्ष्मता से विचार करें तो वे भी इस निष्कर्ष पर पहुचेगें कि संस्कृत ही विश्व – भर के मानवों कों देवों ने भेंट स्वरूप दी है | वह भाषा किसी मानव द्वारा बनाई नहीं गई , बल्कि अन्य भाषाएँ का उद्गम “संस्कृत” से हुआ है |
हमारे देश के प्रशासन को भी इस विषय पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए तथा भारत के युवाओं को भी अपने देश की प्राचीन भाषा और संस्कृति की अस्मिता और पहचान कायम रखने के लिए कदम बढ़ाना होगा; अन्यथा हम अपनी वैदिक भाषा मात्र किताबों में बंद किसी प्रदर्शनी में ही देख पायेगें |
read at ; http://nextfuture.aurosociety.org/sanskrit
Posted on April 1, 2014, in Uncategorized and tagged पाश्चात्य, संस्कृत, सभ्यताwestern civilisation, hindu, language, literature, mother, royal associated society, sanskrit, vedic. Bookmark the permalink. 1 Comment.
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