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समझदारी की पगडंडी – कुप्रचार से सावधान

सच्चे ज्ञानी इस समझदारी को साथ रखते हुए ही अपने रास्ते पर चलते रहते हैं, किन्तु किसी अकल्पनीय कारण से उनके टीकाकार या विरोधी अपना गलत रास्ता नहीं छोड़ते। उन अभागों की मनोदशा ही ऐसी होती है। भर्तृहरि ने कहा है कि जैसे कुत्ता हड्डी चबाता है, उसके मसूड़ों में से रक्त निकलता है और ऐसे लगता है मानो उस हड्डी में से निकला हुआ रक्त उसे स्वाद दे रहा है। इसी प्रकार निन्दा करने वाला व्यक्ति भी किसी दूसरे का बुरा करने के प्रयत्न के साथ विकृत मज़ा लेने का प्रयत्न करता है। इस क्रिया में बोलने वाले के साथ सुनने वाले का भी सत्यानाश होता है। निन्दा एक प्रकार का तेजाब है। वह देने वाले की तरह लेने वाले को भी जलाता है।

ज्ञानी का ज्ञानदीप सर्वत्र प्रकाश फैलाता है, किन्तु मनुष्य तो आँख मूँदकर बैठा है। उस पर इस प्रकाश को कोई असर नहीं होता। ऐसा आदमी दूसरे को भी सलाह देता है कि तुम भी आँखें बन्द कर लो। इस प्रकार वह दूसरे को भी सत्संग के प्रकाश से दूर रखता है।

समाज व राष्ट्र में व्याप्त दोषों के मूल को देखा जाये तो सिवाय अज्ञान के उसका अन्य कोई कारण ही नहीं निकलेगा और अज्ञान तब तक बना ही रहता है जब तक कि किसी अनुभवनिष्ठ ज्ञानी महापुरुष का मार्गदर्शन लेकर लोग उसे सच्चाई से आचरण में नहीं उतारते।

समाज जब ऐसे किसी ज्ञानी संतपुरुष का शरण, सहारा लेने लगता है तब राष्ट्र, धर्म व संस्कृति को नष्ट करने के कुत्सित कार्यों में संलग्न असामाजिक तत्त्वों को अपने षडयन्त्रों का भंडाफोड़ हो जाने का एवं अपना अस्तित्व खतरे में पड़ने का भय होने लगता है, परिणामस्वरूप अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए वे उस दीये को ही बुझाने के लिए नफरत, निन्दा, कुप्रचार, असत्य, अमर्यादित व अनर्गल आक्षेपों व टीका-टिप्पणियों की आँधियों को अपने हाथों में लेकर दौड़ पड़ते हैं, जो समाज में व्याप्त अज्ञानांधकार को नष्ट करने के लिए महापुरुषों द्वारा प्रज्जवलित हुआ था।

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                                                                                                                                                                                                                                                                                             ये असामाजिक तत्त्व अपने विभिन्न षडयन्त्रों द्वारा संतों व महापुरुषों के भक्तों व सेवकों को भी गुमराह करने की कुचेष्टा करते हैं। समझदार साधक या भक्त तो उनके षडयंत्रजाल में नहीं फँसते, महापुरुषों के दिव्य जीवन के प्रतिपल से परिचित उनके अनुयायी कभी भटकते नहीं, पथ से विचलित होते नहीं अपितु सश्रद्ध होकर उनके दैवी कार्यों में अत्यधिक सक्रिय व गतिशील होकर सहभागी हो जाते हैं लेकिन जिन्होंने साधना के पथ पर अभी-अभी कदम रखे हैं ऐसे नवपथिकों के गुमराह कर पथच्युत करने में दुष्टजन आंशिक रूप से अवश्य सफलता प्राप्त कर लेते हैं और इसके साथ ही आरम्भ हो जाता है नैतिक पतन का दौर, जो संतविरोधियों की शांति व पुष्पों को समूल नष्ट कर देता है, कालान्तर में उनका सर्वनाश कर देता है। कहा भी गया हैः

संत सतावे तीनों जावे, तेज बल और वंश।

ऐड़ा-ऐड़ा कई गया, रावण कौरव केरो कंस।।

साथ ही नष्ट होने लगती है समाज व राष्ट्र से मानवता, आस्तिकता, स्वर्गीय सरसता, लोकहित व परदुःखकातरता, सुसंस्कारिता, चारित्रिक सम्पदा तथा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना। इससे राष्ट्र नित्य-निरन्तर पतन के गर्त में गिरता जाता है।

यदि हम वर्तमान भारत के नैतिक मूल्यों के पतन का कारण खोजें तो स्पष्टतः पता चलेगा कि समाज आज महापुरुषों के उपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करने की अपेक्षा इसकी पुनित-पावन संस्कृति के हत्यारों के षडयन्त्रों का शिकार होकर असामाजिक, अनैतिक तथा अपवित्रता युक्त विचारों व लोगों का अन्धानुकरण कर रहा है।

जिनका जीवन आज भी किसी संत या महापुरुष के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सान्निध्य में है, उनके जीवन में आज भी निश्चिन्तता, निर्विकारिता, निर्भयता, प्रसन्नता, सरलता, समता व दयालुता के दैवी गुण साधारण मानवों की अपेक्षा अधिक ही होते हैं तथा देर सवेर वे भी महान हो ही जाते हैं और जिनका जीवन महापुरुषों का, धर्म का सामीप्य व मार्गदर्शन पाने से कतराता है, वे प्रायः अशांत, उद्विग्न व दुःखी देखे जाकर भटकते रहते हैं। इनमें से कई लोग आसुरी वृत्तियों से युक्त होकर संतों के निन्दक बनकर अपना सर्वनाश कर लेते हैं।

शास्त्रों में आता है कि संत की निन्दा, विरोध या अन्य किसी त्रुटि के बदले में संत क्रोध कर दें, श्राप दे दें अथवा कोई दंड दे दें तो इतना अनिष्ट नहीं होता, जितना अनिष्ट संतों की खामोशी व सहनशीलता के कारण होता है। सच्चे संतों की बुराई का फल तो भोगना ही पड़ता है। संत तो दयालु एवं उदार होते हैं, वे तो क्षमा कर देते हैं लेकिन प्रकृति कभी नहीं छोड़ती। इतिहास उठाकर देखें तो पता चलेगा कि सच्चे संतों व महापुरुषों के निन्दकों को कैसे-कैसे भीषण कष्टों को सहते हुए बेमौत मरना पड़ा है और पता नहीं किन-किन नरकों में सड़ना पड़ा है। अतैव समझदारी इसी में है कि हम संतों की प्रशंसा करके या उनके आदर्शों को अपना कर लाभ न ले सकें तो उनकी निन्दा करके अपने पुण्य व शांति भी नष्ट नहीं करनी चाहिए।

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