आहार कैसा हो ?
आहार शुद्धिः
भोजन में शुद्धि एवं पवित्रता होनी चाहिए। उपनिषदों में आया है।
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
आहार शुद्ध हो तो सत्त्व गुण की वृद्धि होती है। सत्त्वगुण बढ़ता है तो आत्मस्वरूप की स्मृति जल्दी होती है।
हम जो भोजन करते हैं वह ऐसा पवित्र होना चाहिए कि उसे लेने से हमारा मन निर्मल हो जाय। भोजन के बाद आलस एवं निद्रा आये ऐसा भोजन नहीं लेना चाहिए। शरीर उत्तेजना आ जाय ऐसा भोजन भी नहीं लेना चाहिए।
‘श्रीमद् भागवत’ भोजन के संबंध में तीन बातें स्पष्ट रूप से बतायी गयी हैं- पथ्यम् पूतम् अनायास्यम्। भोजन अपने शरीर के लिए पथ्यकारक हो, स्वभाव से एवं जाति से पवित्र हो तथा उसे तैयार करने में ज्यादा श्रम न पड़े। जरा विचार करो कि आप जो भोजन ले रहे हैं वह भगवान को भोग लगाने के योग्य है कि नहीं ? भले ही आप थाली परोस कर श्रीविग्रह के समक्ष न रखें, फिर भी भगवान सबके पेट में बैठकर खाते हैं। मात्र खाते ही नहीं पचाते भी हैं। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं।
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापान समायुक्त पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।
“मैं ही समस्त प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण एवं अपान से युक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।’
(गीताः 15.14)
अतः आप जो वस्तु खाने वाले हो, वह भगवान को ही खिलाने वाले हो, वैश्वानर अग्नि में हवन करने वाले हो – यह समझ लो। होम करते समय हविष्य का हवन करते हैं उसी प्रकार भोजन का ग्रास मुख में रखते हुए भावना करो कि ‘यह हविष्य है एवं पेट में स्थित जठराग्नि में इसका हवन कर रहा हूँ।’ ऐसा करने से आपका वह भोजन हवनरूप धर्म बन जायेगा।
भोजन पवित्र स्थान में एवं पवित्र पात्रों में बनाया हुआ होना चाहिए। भोजन बनाने वाला व्यक्ति भी शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र एवं प्रसन्न होना चाहिए। भोजन बनाने वाला व्यक्ति यदि रोता हो कि मुझे पूरा वेतन नहीं मिलता, माता भी दुःखी अवस्था में भोजन बनाती हो, गाय दुहने वाला दुःखी हो, गाय भी दुःखी हो तो ऐसे भोजन एवं दूध से तृप्ति एवं शांति नहीं मिल सकती। मासिक धर्म में आयी हुई महिला के हाथ का भोजन चित्तप्रसाद के लिए अत्यंत हानिकारक है।
भोजन बनाने में उपयोग में आने वाली वस्तुएँ भी स्वभाव से एवं जाति से शुद्ध होनी चाहिए। मनुष्य की पाचन शक्ति पशुओं की पाचनशक्ति के समान नहीं होती। अतः मनुष्य का भोजन अग्नि में पकाया हुआ हो तो हितावह है। कई पदार्थ सूर्य, जल एवं वायु द्वारा पकाए हुए भी होते हैं। पका हुआ भोज्य पदार्थ पेट में आता है तो ठीक ढंग से पच जाता है। उसमें से रस उत्पन्न होता है जो मानव में शक्ति उत्पन्न करता है।
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि भोजन हमारे हक का होना चाहिए। शास्त्रकार कहते हैं-
योऽर्थेशुचिः स शुचिः स्यान्न मृद्वारि शुचिः शुचिः।
सर्वेषामेव शौचनामर्थशौचं परं स्मृतम्।।
‘केवल मिट्टी एवं पानी से शुद्ध की गयी वस्तु ही शुद्ध नहीं होती। अर्थशुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है अर्थात् पवित्र धन से प्राप्त हक की वस्तु ही शुद्ध मानी जाती है।’
अपने हक का भोजन करने वाले का जीवन पवित्र हो जाता है। अंतःकरण को पवित्र एवं निर्मल करने के लिए आहारशुद्धि पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है। अपनी संस्कृति संस्कार-प्रधान है, भोग-प्रधान या अर्थ-प्रधान नहीं। धन ही जीवन का सर्वस्व नहीं है। ऐसे संत-महात्मा एवं गृहस्थ भी देखने को मिलते हैं कि जिनके पास कुछ नहीं है, अकिंचन है फिर भी अत्यंत प्रसन्न हैं। वे कोई पागल नहीं हैं, पूरे स्वस्थ हैं, बुद्धिमान हैं। वित्त अथवा पदार्थों के बिना भी इतने प्रसन्न रहते हैं, इतने निर्मल चित्तवाले रहते हैं कि उनसे जो मिलता है वह भी प्रसन्न हो उठता है। जिन्हें स्पर्श करते हैं, जिन पर मीठी नज़र डालते हैं उनका जीवन भी मीठा-मधुर हो जाता है। इस प्रकार जीवन में चित्त की निर्मलता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। संपत्ति सुख का कारण नहीं है, वरन् चित्त की निर्मलता सुख का कारण है। आपकी जेब में से कोई दो रूपये चुरा ले तो आपको अच्छा नहीं लगेगा किन्तु यदि आप अपने हाथों से दो लाख रूपये का दान करोगे तो मन निर्मल एवं प्रसन्न हो उठेगा। यदि धन-संपत्ति में ही सुख हो तो दान करने के बाद आपको पश्चाताप होना चाहिए किन्तु ऐसा नहीं है। जीवन में सुखी रहना चाहते हो तो अन्य पवित्रताओं के साथ धन की पवित्रता भी आवश्यक है।
महात्मा की कृपा
एक लड़के के पिता मर गये थे। वह लड़का करीब 18-19 साल का होगा। उसका नाम था प्रताप। एक बार भोजन करते समय उसने अपनी भाभी से कहाः “भाभी ! जरा नमक दे दे।”
भाभीः “अरे, क्या कभी नमक माँगता है तो कभी सब्जी माँगता है ! इतना बड़ा बैल जैसा हुआ, कमाता तो है नहीं। जाओ, जरा कमाओ, फिर नमक माँगना।”
लड़के के दिल को चोट लग गयी। उसने कहाः “अच्छा भाभी ! कमाऊँगा तभी नमक माँगूगा।”
वह उसी समय उठकर चल दिया। पास में पैसे तो थे नहीं। उसने सुन रखा था कि मुंबई में कमाना आसान है। वह बिहार से ट्रेन में बैठ गया और मुंबई पहुँचा। काम-धंधे के लिए इधर-उधर भटकता रहा परंतु अनजान आदमी को कौन रखे ! आखिर भूख-प्यास से व्याकुल होकर रात में एक शिवमंदिर में पड़ा रहा और भगवान से प्रार्थना करने लगा कि “हे भगवान ! अब तू ही मेरी रक्षा कर।”
दूसरे दिन की सुबह हुई। थोड़ा सा पानी पीकर निकला, दिन भर घूमा परंतु कहीं काम न मिला। रात्रि को पुनः सो गया। दूसरे दिन भी भूखा रहा। ऐसा करते-करते तीसरा दिन हुआ।
हर जीव सच्चिदानंद परमात्मा से जुड़ा है। जैसे शरीर के किसी भी अंग में कोई जंतु काटे तो हाथ तुरंत वहाँ पहुँच जाता है क्योंकि वह अंग शरीर से जुड़ा है, वैसे ही आपका व्यष्टि श्वास समष्टि से जुड़ा है। उस लड़के के दो दिन तक भूखे-प्यासे रहने परि प्रकृति में उथल-पुथल मच गयी।
तीसरी रात्रि को एक महात्मा आये और बोलेः “बिहारी ! बिहारी ! बेटा, उठ। तू दो दिन से भूखा है। ले, यह मिठाई खा ले। कल सुबह नौकरी भी मिल जायेगी, चिंता मत करना। सब भगवान का मानना, अपना मत मानना।”
महात्मा लँगोटधारी थे। उनका वर्ण काला व कद ठिगना था। लड़के ने मिठाई खायी। उसे नींद आ गयी। सुबह काम की तलाश में निकला तो एक हलवाई ने नौकरी पर रख लिया। लड़के का काम तो अच्छा था, स्वभाव भी अच्छा था। प्रतिदिन वह प्रभु का स्मरण करता और प्रार्थना करता। हलवाई को कोई संतान नहीं थी तो उसने उसी को अपना पुत्र मान लिया। जब हलवाई मर गया तो वही उस दुकान का मालिक बन गया।
अब उसने सोचा कि ‘भाभी ने जरा सा नमक तक नहीं दिया था, उसे भी पता चले कि उसका देवर लाखों कमाने वाला हो गया है।’ उसने 5 हजार रूपये का ड्राफ्ट भाभी को भेज दिया ताकि उसको भी पता चले कि साल दो साल में ही वह कितना अमीर हो गया है। तब महात्मा स्वप्न में आये और बोले कि ‘तू अपना मानने लग गया ?’
उसने इसे स्वप्न मानकर सुना-अनसुना कर दिया और कुछ समय के बाद फिर से 5000 हजार रूपये का ड्राफ्ट भेजा। उसके बाद वह बुरी तरह से बीमार पड़ गया।
इतने में महात्मा पधारे और बोलेः “तू अपना मानता है ? अपना हक रखता है ? किसलिए तू संसार में आया था और यहाँ क्या करने लग गया ? आयुष्य नष्ट हो रहा है, जीवन तबाह हो रहा है। कर दिया न धोखा ! मैंने कहा था कि अपना मत मानना। तू अपना क्यों मानता है ?”
“गुरुजी ! गल्ती हो गयी। अब आप जो कहेंगे वही करूँगा।”
महात्माः “तीन दिन में दुकान का पूरा सामान गरीब गुरबों को लुटा दे। तू खाली हो जा।”
उसने सब लुटा दिया। तब महात्मा ने कहाः
“चल मेरे साथ।”
महात्मा उसे अपने साथ मुंबई से कटनी ले गये। कटनी के पास लिंगा नामक गाँव है, वहाँ से थोड़ी दूरी पर बैलोर की गुफा है। वहाँ उसको बंद कर दिया और कहाः “बैठ जा, बाहर नहीं आना है। जगत की आसक्ति छोड़ और एकाग्रता कर। एकाग्रता और अनासक्ति-ये दो पाठ पढ़ ले, इसमें सब आ जायेगा।
जब तक ये पाठ पूरे न होंगे, तब तक गुफा का दरवाजा नहीं खुलेगा। इस खिड़की से मैं भोजन रख दिया करूँगा। डिब्बा रखता हूँ, वह शौचालय का काम देगा। उसमें शौच करके रोज बाहर रख दिया करना, सफाई हो जायेगी।”
इस प्रकार वह वर्षों तक भीतर ही रहा। उसका देखना, सुनना, सूँघना, खाना-पीना आदि कम हो गया, आत्मिक बल बढ़ गया, शान्ति बढ़ने लगी। नींद को तो उसने जीत ही लिया था। इस प्रकार 11 साल हुए तब महात्मा ने जरा सा तात्त्विक उपदेश दिया और दुनिया के सारे वैज्ञानिक और प्रधानमंत्री भी जिस धन से वंचित हैं, ऐसा महाधन पाकर वह बिहारी लड़का महापुरुष बन गया। महात्मा ने कहाः “अब तुम मुक्तात्मा बन गये हो, ब्रह्मज्ञानी बन गये हो। मौज है तो जाओ, विचरण करो।”
तब वे महापुरुष बिहार में अपने गाँव के निकट कुटिया बनाकर रहने लगे। किंतु वे किसी से कुछ न कहते, शांति से बैठे रहते थे। सुबह 6 से 10 बजे तक कुटिया का दरवाजा खुलता। इस बीच वे अपनी कुटिया की झाड़ू बुहारी करते, खाना पकाते, किसी से मिलना-जुलना आदि कर लेते, फिर कुटिया का दरवाजा बंद हो जाता।
वे अपने मीठे वचनों से और मुस्कान से शोक, पाप, ताप हरने वाले, शांति देने वाले हो गये। चार वेद पढ़े हुए लोग भी न समझ न पायें ऐसे ऊँचे अनुभव के वे धनी थे। बड़े-बड़े धनाढ्य, उद्योगपति, विद्वान और बड़े-बड़े महापुरुष उनके दर्शन करके लाभान्वित होते थे।
ब्रह्मनिष्ठ स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती, जिनके चरणों में इन्दिरा गांधी की गुरू, माँ आनंदमयी कथा सुनने बैठती थीं, वे भी उनके दर्शन करने के लिए गये थे।
ईश्वर के दर्शन के बाद भी आत्मा-परमात्मा का साक्षात्कार करना बाकी रह जाता है। रामकृष्ण परमहंस, हनुमानजी और अर्जुन को भी ईश्वर के दर्शन करने के बाद भी आत्मसाक्षात्कार करना बाकी था। वह उन्होंने कर लिया था-महात्मा की कृपा, अपने संयम और एकांत से। वह साक्षात्कार उस बिहारी युवक को ही नहीं, देश के किसी भी युवक को हो सकता है। है कोई माई का लाल ?
एकाग्र मन में अदभुत सामर्थ्य
तपः सु सर्वेषु एकाग्रता परं तपः।
एकाग्र मन में अदभुत सामर्थ्य होता है। मन अगर चंचल है विक्षिप्त है तो मनुष्य को दुःखों की गर्त में खींच ले जाता है। चंचल मन में आने वाले विचारों के मुताबिक, इच्छाओं के मुताबिक आदमी सब कार्य करता जाय बिना सोचे-समझे, बिना विवेक किये, तो मन पदार्थों की गुलामी में आदमी को दीन-हीन बना देता है।
चंचल मन कमजोर होता है। कमजोर मन अधिक सुरक्षाएँ ढूँढता है। मन जितना कमजोर, सुरक्षा की आवश्यकता उतनी ज्यादा। अपने को बुद्धिमान् मानने वाले बड़े-बड़े लोग मन की चंचलता में आकर कमजोर हो जाते हैं। अपने सुख की सुरक्षा के लिए पूरी अक्ल-होशियारी भौतिक चीजों को इकट्ठी करने में लगा देते हैं। फिर उन चीजों को, धन-सम्पत्ति को अधिक सुरक्षित करने के लिए देश छोड़कर विदेश में ले जाते हैं। वे जब पकड़े जाते हैं तो अति दीनता को प्राप्त होते हैं अथवा तो मृत्यु के समय वही संपत्ति की चिन्ता उनको प्रेत बनाकर भटकाती है।
मन भौतिक चीजों का आश्रय जितना अधिक लेता है उतना भीतर से खोखला हो जाता है। मन भीतर से जितना खोखला होता है उतनी अधिक सुरक्षा चाहता है। जितनी अधिक सुरक्षा चाहता है उतना अधिक झपेटा जाता है। यह सनातन सत्य है।
माउन्ट आबू में हम नलगुफा में रहते थे। उसके पीछे पाण्डव गुफा है। वहाँ के एक पुराने साधू ने मुझे बताया कि झरने के पास रात्रि को शेर आता है। अभी कुछ दिन पहले आया था और एक बन्दर को पकड़कर खा गया।
शेर ने बन्दर को कैसे पकड़ा? बन्दर तो वृक्ष की ऊँची डालियों पर होते हैं। शेर वहाँ पहुँच नहीं सकता। वह बन्दर को कैसे पकड़ता है?
शेर पहले आकर जोर से दहाड़ता है। यह सुनकर बन्दर घबड़ा जाते हैं। उनकी टट्टी-पेशाब छूट जाती है। शेर जब दूसरी बार दहाड़ता है तो बन्दर के लिए पेड़ पर इधर-उधर भाग-दौड़ करते हैं, चिल्लाते हैं, हताश हो जाते हैं, बुद्धि व दृष्टि ठीक से काम नहीं देती। भय के मारे सन्तुलन खो बैठते हैं और वृक्ष से गिर पड़ते हैं, शेर के शिकार बन जाते हैं।
जंगल में दूसरे प्राणी भी छिपकर बैठे होते हैं। शेर की दहाड़ सुनकर जब वे सुरक्षा के लिए भाग-दौड़ करते हैं, कोई दूसरा स्थान खोजने के लिए बाहर निकल कर भागते हैं तो शेर की झपट में आ जाते हैं। बिल्ली भी रात्रि को डरावनी आवाज करती है तो चूहे डर के मारे भाग-दौड़ करते हैं और झपेटे जाते हैं।
मन पदार्थों के साथ, प्रतिष्ठा के साथ, देहाभिमान के साथ जुड़ जाता है तो भीतर से खोखला हो जाता है। खोखला मन बाह्य साधनों में सुरक्षा खोजता है। फलतः व्यक्ति मनोबल खो बैठता है। मन एकाग्र होता है तो वह भीतर से अपने को बलवान महसूस करता है एकाग्रता के तप के आगे बाहर का धन, बाहर की सत्ता, बाहर की सुरक्षा कोई मूल्य नहीं रखती।
एकाग्र मन स्वयं प्रसन्न रहता है, बुद्धि का विकास होता है, जीवन भीतर से परितृप्त और जीने योग्य होता है। व्यक्ति का मन जितना एकाग्र होता है, समाज पर उसकी वाणी का, उसके हाव भाव का, उसके क्रिया-कलापों का उतना ही गहरा प्रभाव पड़ता है। उसका जीवन चमक उठता है।
एकाग्रतारूपी खजाना प्राप्त करने के कई तरीके हैं। उन सबमें त्राटक भी एक तरीका है। त्राटक के कुछ प्रयोग यहाँ जानेंगे। आप हिमालय में जाकर साधना नहीं कर सकते, आश्रम में सदा रहकर भी आप अभ्यास नहीं कर सकते लेकिन ये प्रयोग अपने घर में ही करके लाभ उठा सकते हैं।
अपने ध्यान-भजन-साधना के कमरे में ॐ अथवा स्वस्तिक का एक चित्र बना लो। भूमि पर बिछे हुए आसन पर आप बैठें तो वह चित्र आपकी आँखों के ठीक सामने रहे इस प्रकार तीन-चार फीट दूर रख दो। चित्र आँखों के ठीक सामने हो, न ऊँचा हो न नीचा हो।
त्राटक का अभ्यास करने के लिए हररोज एक निश्चित समय पर एक ही जगह बैठने से अधिक लाभ होगा। चित्र के सामने आसन पर स्वस्थ होकर सीधे बैठ जाओ। आँखें खुली रखकर उस चित्र को अपलक नेत्रों से देखते रहो। दृष्टि को एक ही बिन्दु पर एकाग्र कर दो। आँखों की पलकें गिरें नहीं। दृष्टि एकटक रहे, शरीर अडोल रहे।
प्रारम्भ में जरा कठिन लगेगा। थकान लगेगी, उबान आयेगी, आँखों की पलकें गिरने लगेंगी फिर भी दृढ़ होकर अभ्यास जारी रखो। जब तक आँखों से पानी न टपके तब तक उस चित्र को एकटक निहारते रहो… निहारते रहो… पाँच मिनट… सात मिनट… दस मिनट…. पंद्रह मिनट… अभ्यास बढ़ाते जाओ। जितना आगे बढ़ोगे उतना अधिक लाभ होगा। इस प्रयोग में कोई खतरा नहीं, कोई हानि नहीं।
अपने कमरे में घी का दीया जला दो। मोमबत्ती भी चल सकती है। यदि घी का दीया हो तो अच्छा है। उसको थोड़ी दूर रखकर उसकी लौ को एकटक, अपलक नेत्रों से देखते रहो। शरीर सीधा व अडोल रहे। आँखों की पलकें न गिरें। आँखों से पानी टपके तब तक देखते रहो…. निहारते रहो। आपके मन की एकाग्रता बढ़ती जायेगी।
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