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जीवन का सर्वांगीण विकास…

 

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जीवन का सर्वांगीण विकास…

निश्चिन्तता, निर्भीकता और प्रसन्नता से जीवन का सर्वांगीण विकास होगा । अतः उन्हें बढ़ाते जाओ । ईश्वर और संतों पर श्रद्धा-प्रीति रखने से निश्चिन्तता, निर्भीकता, प्रसन्नता अवश्य बढ़ती है ।

आत्मिक ऐश्वर्य, माधुर्य और पूर्ण प्रेम….। निष्कामता और एकाग्रता से आत्मिक ऐश्वर्य बढ़ता है । आत्मिक ऐश्वर्य से, सर्वात्मभाव से शुद्ध प्रेम की अभिव्यक्ति होती है । आप सबके जीवन में इसके लिए पुरुषार्थ हो और दिव्य सामर्थ्य प्रकट हो….।

थके, हारे, निराशावादी को सूर्य भले पुराना दिखे लेकिन आशावादी, उत्साही, प्रसन्नचित्त समझदार को तो पुराणपुरुषोत्तम सूर्य नित्य नया भासता है । आपका हर पल नित्य नये आनन्द और चमकता दमकता व्यतीत हो ।

आपका जीवन सफलता, उत्साह, आरोग्यता और आनन्द के विचार से सदैव चमकता दमकता रहे… आप विघ्न-बाधाओं के सिर पर नृत्य करते हुए आत्म-नारायण में निरन्तर आनन्द पाते रहें यह शुभ कामना….

नूतन वर्ष के मंगल प्रभात में जीवन को तेजस्वी बनाने का संकल्प करें । ईश्वर और संतों के मंगलमय आशीर्वाद आपके साथ हैं ।

दीप-प्राकट्य के साथ साथ आपकी आन्तर ज्योत का भी प्राकट्य हो ।

ज्योत से ज्योत जगाओ सदगुरु !

ज्योत से ज्योत जगाओ…..

मेरा अन्तर तिमिर मिटाओ सदगुरु !

ज्योत से ज्योत जगाओ…..

संसार की लहरियाँ तो बदलती जाएँगी, इसलिए हे मित्र ! हे मेरे भैया ! हे वीर पुरुष ! रोते, चीखते, सिसकते क्या जीना? मुस्कराते रहो…. हरि गीत गाते रहो…. हरि रस पाते रहो… यही शुभ कामना । आज से आपके नूतन वर्ष का प्रारम्भ…..

दुर्बल एवं हल्के विचारों से आपने बहुत-बहुत सहन किया है । अब इसका अन्त कर दो । दीपावली के दीपक के साथ साहस एवं सज्जनता को प्रकटाओ । जय हो ! शाबाश वीर ! शाबाश!

हे मानव ! अभी तुम चाहो तो जीवन का सूर्य डूब जाये उससे पहले सूर्यों के सूर्य, देवों के देव आत्मदेव का अनुभव करके मुक्त हो सकते हो । जीवनदाता में स्थिर हो सकते हो । सोहं के संगीत का गुँजन कर दो । फिर तो सदा दीवाली है ।

हम भारत वासी सचमुच भाग्यशाली हैं । भिन्न-भिन्न भगवानों की, देवी-देवताओं की उपासना-अर्चना से हमारे बहुआयामी मन को आन्तरिक माधुर्य मिल पाता है, जो तथाकथित धनाढ्य देशों में मिलना संभव नहीं है । भिन्नता में अभिन्न आत्मा-परमात्मा एक ही है ।

संयम और सदाचार के साथ संस्कृति के प्रचार में लगकर भारतभूमि की सेवा करो ।

कदम अपने आगे बढ़ाता चला जा….

दिलों के दिये जगमगाता चला जा….

भय, चिन्ता एवं बेचैनी से ऊपर उठो । आपकी ज्ञान ज्योति जगमगा उठेगी ।

सदा साहसी बनो । धैर्य न छोड़ो । हजार बार असफल होने पर भी ईश्वर के मार्ग पर एक कदम और रखो ।

भावना ही प्रेम का मूल है।

 

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भावना ही प्रेम का मूल है।

हरिबाबा से एक भक्त ने कहाः “महाराज ! यह अभागा, पापी मन रूपये पैसों के लिए तो रोता पिटता है लेकिन भगवान अपना आत्मा हैं, फिर भी आज तक नहीं मिलि इसके लिए रोता नहीं है। क्या करें ?”

हरिबाबाः “रोना नहीं आता तो झूठमूठ में ही रो ले।”

“महाराज ! झूठमूठ में भी रोना नहीं आता है तो क्या करें ?”

महाराज दयालु थे। उन्होंने भगवान के विरह की दो बातें कहीं। विरह की बात करते-करते उन्होंने बीच में ही कहा कि “चलो, झूठमूठ में रोओ।” सबने झूठमूठ में रोना चालू किया तो देखते-देखते भक्तों में सच्चा भाव जग गया।

झूठा संसार सच्चा आकर्षण पैदा करके चौरासी के चक्कर में डाल देता है तो भगवान के लिए झूठमूठ में रोना सच्चा विरह पैदा करके हृदय में प्रेमाभक्ति भी जगा देता है।

अनुराग इस भावना का नाम है कि “भगवान हमसे बड़ा स्नेह करते हैं, हम पर बड़ी भारी कृपा रखते हैं। हम उनको नहीं देखते पर वे हमको देखते रहते हैं। हम उनको भूल जाते हैं पर वे हमको नहीं भूलते। हमने उनसे नाता-रिश्ता तोड़ लिया है पर उन्होंने हमसे अपना नाता-रिश्ता नहीं तोड़ा है। हम उनके प्रति कृतघ्न हैं पर हमारे ऊपर उनके उपकारों की सीमा नहीं है। भगवान हमारी कृतघ्नता के बावजूद हमसे प्रेम करते हैं, हमको अपनी गोद में रखते हैं, हमको देखते रहते हैं, हमारा पालन-पोषण करते रहते हैं।’ इस प्रकार की भावना ही प्रेम का मूल है। अगर तुम यह मानते हो कि ‘मैं भगवान से बहुत प्रेम करता हूँ लेकिन भगवान नहीं करते’ तो तुम्हारा प्रेम खोखला है। अपने प्रेम की अपेक्षा प्रेमास्पद के प्रेम को अधिक मानने से ही प्रेम बढ़ता है। कैसे भी करके कभी प्रेम की मधुमय सरिता में गोता मारो तो कभी विरह की।

दिल की झरोखे में झुरमुट के पीछे से जो टुकुर-टुकुर देख रहे हैं दिलबर दाता, उन्हें विरह में पुकारोः ‘हे नाथ !…. हे देव !… हे रक्षक-पोषक प्रभु !….. टुकुर-टुकुर दिल के झरोखे से देखने वाले देव !…. प्रभुदेव !… ओ देव !… मेरे देव !…. प्यारे देव!….. तेरी प्रीति, तेरी भक्ति दे….. हम तो तुझी से माँगेंगे, क्या बाजार से लेंगे ? कुछ तो बोलो प्रभु !…’

कैसे भी उन्हें पुकारो। वे बड़े दयालु हैं। वे जरूर अपनी करूणा-वरूणा का एहसास करायेंगे।

तुलसी अपने राम को रीझ भजो या खीज।

भूमि फैंके उगेंगे, उलटे सीधे बीज।।

विरह से भजो या प्रेमाभक्ति से, जप करके भजो या ध्यान करके, उपवास, नियम-व्रत करके भजो या सेवा करके, अपने परमात्मदेव की आराधना ही सर्व मंगल, सर्व कल्याण करने वाली है।

हरि तुमसे दूर नहीं ….

 

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हरि तुमसे दूर नहीं ….

सौ छोटे-छोटे पातक एक महापातक बनता है। सौ छोटे-छोटे पुण्य एक महा पुण्य बनता है। जब पुण्य का सिलसिला चलता है तब जीव सुखी रहता है। इस समय पाप करता है तो भी उसको धन-संपत्ति, सुख सुविधाएँ मिलती रहती हैं क्योंकि अभी पुण्यकाल का प्रकरण चल रहा है। जब प्रारब्ध का पाप प्रकरण चलता है तब अच्छा काम करते हुए भी व्यक्ति के जीवन में कोई विशेष लाभ नहीं दिखता।

ऐसे समय में किसी को निराश नहीं होना चाहिए। अपना जप-तप-ध्यान-अनुष्ठान-आत्म-विचार प्रतिदिन चालू रखना चाहिए। कल्मष कटते जाएंगे, अन्तःकरण पावन होता जाएगा. महापातक दूर होते जाएँगे तब जप, ध्यान, कीर्तन आदि का पूरा लाभ दिखेगा। तुलसीदास जी कहते हैं-

तुलसी  जाके मुखनते धोखे निकसे राम।

ताके पग की पगतरी मोरे तन को चाम।।

धोखे से भी जिसके मुख से भगवान का नाम निकलता है वह आदमी भी आदर के योग्य है। जो प्रेम से भगवान का चिन्तन, ध्यान करता है, भगवतत्त्व का विचार करता है उसके आदर का तो कहना ही क्या ? उसके साधन-भजन को अगर सत्संग का संपुट मिल जाय तो वह जरूर हरिद्वार पहुँच सकता है। हरिद्वार यानी हरि का द्वार। वह गंगा किनारे वाला हरि द्वार नहीं, जहाँ से तुम चलते हो वहीं हरि का द्वार हो। संसार में घूम फिरकर जब ठीक से अपने आप में गोता लगाओगे, आत्म-स्वरूप में गति करोगे तब पता चलोगे कि हरिद्वार तुमसे दूर नहीं, हरि तुमसे दूर नहीं और तुम हरि से दूर नहीं।

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था।

आता न था नजर तो नजर का कसूर था।।

अज्ञान की नजर हटती है। ज्ञान की नजर निखरते निखरते जीव ब्रह्ममय  हो जाता है। जीवो ब्रह्मैव नापरः। यह अनुभव हो जाता है।

 

हजारों जन्म मेंढक की योनि….

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हजारों जन्म मेंढक की योनि

स्वामी विवेकानन्द की तेजस्वी और अद्वितिय प्रतिभा के कारण कुछ लोग ईर्ष्या से जलने लगे। कुछ दुष्टों ने उनके कमरे में एक वेश्या को भेजा। श्री रामकृष्ण परमहंस को भी बदनाम करने के लिए ऐसा ही घृणित प्रयोग किया गया, किन्तु उन वेश्याओं ने तुरन्त ही बाहर निकल कर दुष्टों की बुरी तरह खबर ली और दोनों संत विकास के पथ पर आगे बढ़े। शिर्डीवाले साँईबाबा, जिन्हें आज भी लाखों लोग नवाजते हैं, उनके हयातिकाल में उन पर भी दुष्टों ने कम जुल्म न किये। उन्हें भी अनेकानेक षडयन्त्रों का शिकार बनाया गया लेकिन वे निर्दोष संत निश्चिंत ही रहे।

पैठण के एकनाथ जी महाराज पर भी दुनिया वालों ने बहुत आरोप-प्रत्यारोप गढ़े लेकिन उनकी विलक्षण मानसिकता को तनिक भी आघात न पहुँचा अपितु प्रभुभक्ति में मस्त रहने वाले इन संत ने हँसते-खेलते सब कुछ सह लिया। संत तुकाराम महाराज को तो बाल मुंडन करवाकर गधे पर उल्टा बिठाकर जूते और चप्पल का हार पहनाकर पूरे गाँव में घुमाया, बेइज्जती की एवं न कहने योग्य कार्य किया। ऋषि दयानन्द के ओज-तेज को न सहने वालों ने बाईस बार उनको जहर देने का बीभत्स कृत्य किया और अन्ततः वे नराधम इस घोर पातक कर्म में सफल तो हुए लेकिन अपनी सातों पीढ़ियों को नरकगामी बनाने वाले हुए।

हरि गुरु निन्दक दादुर होई।

जन्म सहस्र पाव तन सोई।।

ऐसे दुष्ट दुर्जनों को हजारों जन्म मेंढक की योनि में लेने पड़ते हैं। ऋषि दयानन्द का तो आज भी आदर के साथ स्मरण किया जाता है लेकिन संतजन के वे हत्यारे व पापी निन्दक किन-किन नरकों की पीड़ा सह रहे होंगे यह तो ईश्वर ही जाने।

कदाचित् इसीलिए विवेकानन्द ने कहा थाः “जो अंधकार से टकराता है वह खुद तो टकराता ही रहता है, अपने साथ वह दूसरों को भी अँधेरे कुएँ में ढकेलने का प्रयत्न करता है। उसमें जो जागता है वह बच जाता है, दूसरे सभी गड्डे में गिर पड़ते हैं।